1. भाषा का स्वरूप और साहित्य - GNANA SAMHITHA

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Tuesday, June 25, 2024

1. भाषा का स्वरूप और साहित्य

 वैदिक वांङमइ  में भापा :

वेद में भाषा के अनेक नाम है, यथा - याग, वाचु, गिर इत्यादि ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गथा है--

"लोकव्यवहारे प्रचलित वागेव भाषा शब्देन व्यवहृता"

👉 अर्थात् लोकव्यवहार में प्रचलित 'वाग्' शब्द ही "भाषा' शब्द के रूप में परयोग में लाया जाता है।
👉 आँगिरस का मत है कि निर्दोष वाग् (भाषा) से कल्याण होता है। 
👉 शर्शीकर्ण काण्य कथन है कि वाचु (भाषा) से दिव्यता, सुमति और श्रेय की प्राप्ति होती है। वामदेव
👉 गौतम ने कहा है कि भाषा की विभिन्न शैलियाँ बहुविध अर्थ को प्रकट करती । 
👉 अथर्वेद में कहा गया है, कि देवों ने पशुओं पक्षियों और मनुष्यों को प्रदान की-

"देवाः पशु पक्षि मनुष्येभ्यो वाचे ददुः"

ऋरगुवेद में कुत्स ने कहा है-

अर्थात सर्वप्रथम इन्द्र ने मनुष्य को ईश्वर-स्तुति के लिए भापा प्रदान की। यहां भाषा के आध्यात्मिक भाव को प्रदर्शित किया गया है।

क्या भाषा केवल कान का विषय है ?

भाषा की परिभाषा करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि भाषा का प्रयोग किसके द्वारा होता है और किरा रूप में होता है। यहाँ यह बात ध्यान में रखनी होगी कि भाषा केवल कानों का ही विषय नहीं- ऑखों का भी विषय है। एक व्ंग्य चित्रकार 10- 15 रेखाओं के व्यग्य चित्र में वह बात कह देता है जो बडी पोथी में भी नहीं कही जाती।
गँगे के रांकेत में भी भापा रहती है।

भाषा का प्रयोग:

भाषा का प्रयोग केवल मनुष्यों द्वारा ही नहीं, इतर प्राणियों द्वारा भी होता है। जानवरों की भी भाषा होती है। गर्मी में हॉँफता हुआ एक कुत्ता हमारे पास आकर खड़ा हो जाता है और कुँ-क करता है। वह अपनी भाषा में हमसे पानी माँगतता है। ठीक रोटी खाने के समय एक गाय हमारे द्वार पर आकर खड़ी हो जाती है। वह अपनी भाषा में. हमसे खाने को माँगती है। पेड-पौधों की भी अपनी भाषा होती है। ग्रीम्-ऋतु में वर्षा न होने पर वे मुरझो जातें हैं। वे अपनी भाषा में अभिय्यक्त करते हैं- हम दुःखी हैं। मेघ पेड़ों कौ इस भाषा को समझते है और झर-झर करके अपना जल उन पर बरसा देते हैं। पेड-पौधे हरे-भरे हो जाते है और लहलहाने लगते हैं। वे अपनी भाषा में कहते हैं - अब
हम प्रसन्न है।

उपर्यक्त वर्णित सभी पदार्थ तो चेतन हैं। जड़ कहे जाने वाले पदार्थों की भी अपनी भाषा होती है। हिमालय प्त अपने स्थान पर निश्चल खड़ा हुआ पुकार-पुकार कर जो कुछ कह रहा है, उसे एक कवि के शब्दों में ऐसे व्यक्त कर सकते हैं-

"खड़ा हिमालय बता रहा है,
डरो न आँधी पानी में । 
डटे रहो तुम अपने पथ पर,
कठिनाई तूफानों में।। "

जब जड़ तथा चेतन प्राणी भाषा का प्रयोग करते हैं तो मनुष्य के द्वारा भाषा का प्रयोग करना कोई आश्चर्य की बात नहीं। मनुष्य भाषा का प्रयोग दो रूपों में करता है-

(क) बोलचाल के द्वारा, तथा
(ख) मूक रूप में ।

बोलचाल का रूप तो हम सब जानते ही हैं, मूक रूप से भी हम अपरिचित नहीं राज़कुमार सिद्धार्थ राजसी ठाठ में बग्धी में घूमने निकलता है। मार्ग में उसे गेगी, वृद्ध, मृत व्यक्ति मिलते हैं। वे सब मूक भाषा में उससे कहते हैं--'राजकुमार ! एक दिन तुम भी इसी प्रकार रोग से ग्रस्त होंगे, एक दिन तुम भी वृद्धावस्था को प्राप्त करोगे, एक
दिन तुम भी मृत्यु का ग्रास बनोगे।

राजकुमार सिद्धार्थ ने उनकी इस मूक भाषा को समझा। उसे वैराग्य हुआ और वह घर से निकल पड़ा। भाषा के अन्य कई रूप भी हो सकते हैं, जिनकी चर्चा हम अगले पृष्ठों में करेंगे। परन्तु मूल प्रश्न तो यह है कि भाषा आखिर है क्या ?

भाषा क्या है ?

(1) तमसा नदी कल-कल स्वर में बह रही थी। उसके निर्मल और शान्त जल में कितने ही पक्षी अवगाहन कर रहे थे। निकट में वाल्मीकि ऋषि का आश्रम था। तमसा की शुद्ध तथा निर्मल धारा में स्नान करने के लिए वाल्मीकि नदी तट की ओर जा रहे थे। नदी के मनोहर तट पर क्रौ्च पक्षियों का जोड़ा विचर रहा था। वाल्मीकि ने उन्हें मधुर कलरव करते हुए देखा । इतने में निषाद वहाँ आता है और क्रौज्च पकषियों पर अपना बाण छोड़ देता है। नर-पक्षी क्रौज्य घायल हो जाता है और चीत्कार करता हुआ अपने प्राण छोड़ देता है। उसकी भार्या बक्रौञ्ची करुणाजनक स्वर में चीत्कार करती है। वाल्मीकि उसका करुण-क्रन्दन सुनते हैं । उनका अन्तर उद्देलित हो उठता है। क्रौज्ची
की करुणा, उनकी करुणा बन जाती है और सहसा उनके मुख से निकल पड़ता है-

"मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः ।
यत् क्रौंच मिथुनादेकमवधीः काम मोहितम् ।"

भाषा के भाध्यम से वाल्मीकि की यह करुणा- हमारी करुणा बन जाती है और हमारे हृदय को रपर्श करती है । वाल्मीकि ऋपि पहले अपने अन्तर के उद्देलन करना चाहते हुए भी नहीं कर पा रहे थे। परन्तु क्रौज्धी के करुण क्रन्दन ने उनके अन्तस्तल के अवरुद्ध कपाट खोल दिए। उनकी हदय की वेदना साकार रूप में प्रकट हो उठी-भाषा के भाध्यम से, चाणी के माध्यम से, छन्द के माध्यम से । इसी छन्द में उन्होंने सम्पूर्ण राभायण लिखी।

2) माता यशोद्दा के पास रहते हुए बालक कृष्ण कई लीलाएँ करते हैं । माता यशोदा का हृदय वात्सल्य से आनन्दित हो उठता है। सूरदास बालक कृष्ण की इन लीलाओं को स्मरण करते-करते आनन्द-विभोर हो उठते हैं। सूर के हृदय का यह अपार आनन्द मुखरित हो उठता है। भाषा के भाध्यम से इन शब्दों में-

(क) मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी।
कितीक बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
काचो दूध पियावत पचि पचि देत न माखन रोटी।

(ख) मैया ! मैं नहिं माखन खायो।
ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो।

यशोदा के हृदय की यह प्रसन्नता, आनन्द, आल्हाद-सूर के हदय का आनन्द बन जाता है और उनकी भाषा के माध्यम से हमारे अन्तर का आनन्द बन जाता है। उपर्युक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा का सम्बन्ध मनुष्य के अन्तर से है। विश्व के रंगमंच पर होने वाले क्रिया-कलापों से, घात-प्रतिघात से, घटना-क्रमों से मनुष्य का अन्तर उद्देलित हो उठता है, उसके हृदय में वलवले से उठने लगते हैं। अन्तर या हृदय का यह उद्वेलन, दिल के यह वलवले जिस माध्यम से प्रकट होते हैं, अन्तर का यह उद्देलन भाषा के माध्यम से , अन्य ह्ृदयों का स्पर्श करके उन्हें स्पन्दित कर देता है।

भाषा-सम्बन्धी अन्य दृष्टिकोण

1. भौतिक दृष्टिकोण

कुछ. लोग भाषा पर भौतिक दृष्टि से विचार करते हैं । उनके विचारानुसार भाषा ध्वनियों का समूह मात्र है, और यह ध्वनियाँ किंसी न किसी अर्थ की प्रतीति कराती हैं। यह लोग जीभ, ओठ, नाक, गला तथा अन्य स्वर-यन्त्रो का अध्ययन करते हैं; क्योंकि किन्हीं भी दो व्यक्तियों के स्वर-यन्त्र एक जैसे नहीं होते, इसलिए उनके बोलने की भाषा में कुछ न कुछ अन्तर अवश्य रहेगा ही। प्रत्येक व्यक्ति का बोलने का ढंग कुछ निराला ही होगा।


2. सामाजिक दृष्टिकोण

सामाजिकी के विद्वान् भाषा को सामाजिक आदान-प्रदान की वस्तु मानते हैं। मनुष्य एक सामाजिक पशु है। वह अकेला नहीं रह सकता है। वह एक-दूसरे के साथ मिलकर रहना चाहता है। इसलिए आदान-प्रदान में सुविधा की दृष्टि से जाति के सभी सदस्यों ने कृछ चिन्हों को स्वीकार कर लिया। इन चिन्हों का आधार कुछ ध्वनियाँ थीं जिनका प्रयोग जाति के भिन्न-भिन्न समूहों में होता था कालान्तर में इन्हीं ध्वयनि-चिन्हों ने शब्दों और वाक्यो का रूप धारण कर लिया।

3. सांस्कृतिक दृष्टिकोण

मानव-विज्ञानवादियो के अनुसार भाषा एक सांरकृतिक वर्तु है, जिसे हम परम्परा से प्राप्त करते है । किसी भी सांरकृतिक उपलक्धि के समान परम्परा से प्रप्त मातृभाषा अधवा जातीय भाषा का संरक्षण करना, हम सबका कर्त्तव्य है। परन्तु अन्य सांस्कृतिक उपलब्धियों के सभान जैसे-जैरे संसकृति में कु हेर- फेर होता रहता है, उसी प्रकार भाषा में भी परिवर्तन होते रहते है। नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी की भाषा में, अनेक बातों में अन्तर रहता है, जैसे- उच्चारण, शब्दों की रचना तथा शब्द-भण्डार इत्यादि मैं नवीन सांस्कृतिक उपलब्धियों के साथ-साथ भाषा भी अनेक नए रूप ग्रहण करती है, जिसका प्रभाव विशेष रूप से नई पीढ़ी के लोगों पर पड़ता रहता है । फिर भी देखा गया है कि भौगोलिक स्थिति आय व्यवसाय, सामाजिक स्तर आदि बातें भी भाषा पर प्रभाव डालती है। पुरुषों और स्त्रियों की भाषा में भी अन्तर होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा कोई स्थिर वस्तु नहीं, अपितु संस्कृति के समान एक गतिशील त्त्व है।

भाषा : एक सांकेतिक साधन है

भाषा को एक सांकेतिक साधन कहा गया है। जब तक भाषा की भिन्न-भिन्न ध्वनियों का आविष्कार नहीं हुआ था, तब तक हम अपने विचारों को प्रकट करने के लिए भिन्न-भिन्न संकेतो को प्रयोग में लाते थे; जैसे-सिर को ऊपर-नीचे अथवा दायें-बायें हिलाना और नेत्रों को टेढे- तिराछे घुमाना। परन्तु केवल आंगिक संकेतों के सहारे हम अपने सभी विचारों को ठीक प्रकार से अभिव्यक्त नहीं कर सकते । इसलिए कालान्तर में भाषा का आविष्कार हुआ ।

पहले हम जब अपने विचारों को प्रकट करना चाहते तो आंगिक संकेतों का प्रयोग करते थे; परन्तु बाद में भाषा के आविष्कार के पश्चात् भाषा के माध्यम के द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति होने लगी। भाषा भी एक प्रकार का संकेत ही है; परन्तु अन्तर केवल इतना ही है कि वह शारीरिक अथवा आंगिक संकेत न होकर, ध्वन्यात्मक संकेत है। शारीरिक अथवा आंगिक संकेतों की कोई न कोई सीमा होती है, परन्तु ध्वन्यात्मक सकेत की सीमा नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त आंगिक संकेतों के द्वारा कुछ गिने-चुने का भावों का ही स्प्टीकरण हो सकता है, जो मन्ष्य को एक सीमित क्षेत्र में रहने के लिए ध्य करते हैं । अपने परम्परागत विचारों की अभूल्य निधि को सुरक्षित रखने की बात तो दूर रही, हम अपने ही समय के लोगों के विचारों को इन शारीरिक संकेतों के द्वारा नहीं कर सकते। परन्तु ध्वन्यात्मक संकेतों में वह क्षमता है कि अनन्तकाल तक, मानव के कोटि- कोटि मनोभावों को सुरक्षित रखते हुए. एक युग से दूसरे युग तक पहुँचाते रहें।

भाषा और साहित्य

मानव समाज को विधाता की ओर से सबसे बड़ा वरदान मिला है, वह भाषा का ही है। भाषा के बिना मनुष्य-समाज की दशा कितनी शोचनीय होती ? इसकी जानेकारी पशुओं, पक्षियों तथा कीडे-पतंगों आदि के दयनीय जीवन-क्रम को देखने से भली-भाँति हो सकता है । 

        भाषा का महत्त्व एक अन्य दृष्टि रे भी आँका जा सकता है। वह समाज, जाति अथवा राष्ट्र उन्नत समझा जाता है, जिराका साहित्य उच्य-कोटि का हो। भारतीय रामाज उच्च था, कितना प्रगतिशील था ? इसका अनुमान उसके उपलब्ध साहित्य से लगाया जा सकता है। जिस जाति के पार वैदिक साहित्य, उपनिषद ग्रन्थ, दर्शन-शारत्र, महाभारत, भार, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, सूरदास तथा जयशंकर प्रसाद जैसे महानुभायों की कृतियाँ हों, उस जाति की विचारों सम्बन्धी श्रेष्ठता को भला कौन स्वीकार न करेगा ? साहित्य को सभाज का दर्पण कहा गया है; अर्थात् सामाजिक जीवन का प्रतिबिभ्ब हमें साहित्य में उपलब्ध होगा। समाज के जैसे विचार हॉगे, भावनाएँ होगी-बैसा ही उसका साहित्य भी होगा। परन्तु ये सब भावनाएँ और विचार कौन-से माध्यम के द्वारा अभिव्य्त किए जा सकते हैं ? भाषा के द्वारा ही हम इनका आकलन कर सकते हैं ? बिना भाषा के माध्यम के, हम इतने सुन्दर तथा उच्चकोटि के साहित्य का सृजन करने में समर्थ न हो सकते। उन्नत साहित्य से हमारा तात्पर्य है-भाषा का व्यवहार सुन्दर रूप मैं तथा विविध शैलियों में किया जाय।

उपर्युक्त सभी बातों के आधार पर हम भरली- भाँति, इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय जीवन में भाषा का महत्त्व कितना अधिक होता है।

भाषा का रूप

भाषा के दो रूप होते हैं- 

(1) उच्चरित भाषा
(2) लिखित भाषा 

भाषा के उच्चरित रूप का व्यवहार, हम अपनी बोलचाल में प्रतिदिन करते हैं। इसे मौखिक भाषा' भी कह सकते हैं। 

भाषा के लिखित रूप का व्यवहार हम उस समय करते हैं, जब हम अपना सन्देश किसी ऐसे व्यक्ति को पहुँचाना चाहें, जो हमसे बहुत दूर हो। परम्परागत तथा वर्तमान विचारों को आगे आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखा जाय इसके लिए भी भाषा के लिखित रूप का प्रयोग किया जाता है।

भाषा के स्वखूप को सामने रखते हुए, भाषा का विभाजन निम्नलिखित ढंग पर भी हो सकता है-

(i) रथायी भाषा, (ii) अस्थायी भाषा।

अपने लिरखित रूप में भाषा सदा रथायी रह सकती है, क्योंकि इनका प्रयोग आने वाली पीढियों के लिए किया जा सकता है। हमारा परभम्परागत साहित्य लिखित रूप में ही हमें प्राप्त हुआ। वर्तमभान साहित्य भी हम लिखित रूप में छोड जायेंगे।

अपने उच्चरित रूप में भापा-अरथायी या क्षाणिक होती है। हम जो कुछ भी बोलते हैं, वह बोलने के साथ-साथ हवा में उड़ जाता है। उसे यदि हम पकड़ना चाहे तो भी नहीं पकड़ सकते । आज विज्ञान का युग है। विज्ञान में प्रतिदिन नए-नए आविष्फार हो रहे हैं। विज्ञान ने भाषा के उच्चरित अथवा मौखिक रूप को कुछ स्थायित्व दिया है। नभ-वाणी (Radio) तथा दूरदर्शन (Television) के द्वारा हम दूर बैठे हुए भी किसी बात को सुन सकते हैं। सीतावाद्य (Gramophone) तथा ध्वनि-लेख (Tape-Recorder) के द्वारा  हम उच्यरित या मौखिक भाषा को बहुत समय तक सुरक्षित रख सकते है।


भाषा-शिक्षण के उद्देश्य

भिन्र भिन्न मनोवैज्ञानिकों तथा भाषाशारित्रयों ने भाषा-शिक्षण के नीचे लिखे उद्देश्य निर्धारित किए है-

1. प्राथमिक कक्षाएँ

1. बालको को इस योग्य बनाना कि पातयक्रम में निर्धारित शब्दावली के आधार सामान्य गति से बोली गई उच्यरित भाषा को भली- भाति समझ सके।
2. बालको को इस योग्य बनाना कि पाद्यक्रम में निर्धारित शब्दावली के आधार पर भाषा को हीक-टीक बोल सकें । वे जिस वातावरण में रहते हैं, उसको सामने रखते हुए, जहां तक बन पाए, उनका उच्यारण शुद्ध होना चाहिए।
3.उन्हें इस योग्य बनाना कि पाढयक्रम में निर्धारित शब्दावली के आधार पर वे उचित प्रबाह के साथ सरवर वाचन कर सकें।
4. बालको में ऐसी क्षमता उत्पन्न करना कि वे उचित गति से उपर्युक्त पाट्या-सामग्री का भौन वाचन करते हुए उसे ठीक-ठीक समझ सकें तथा उनसे इस सम्बन्ध में जो-जो प्रश्न पूछे जाएँ, उन प्रश्नों का जैसा चाहिए, वैसा उत्तर दे सकें।
5. उन्हें इस योग्य बनाना कि वे पाठयक्रम में निर्धारित शब्दावली के भीतर छोटे-छोटे वाक्य तथा अनुच्छेद बनाने में समर्थ हो सरकें । यह आवश्यक नहीं कि इन वाक्यों तथा अनुच्छेदों को बनाते समय सम्बन्धित विषय भी वे स्वयं ही सोचें ।

2. माध्यमिक कक्षाएँ

1. छात्रों को इस योग्य बनाना कि वे पादयक्रम में निश्चित की मई शब्दावली के भीतर; सामान्य गति से बोली गई उच्चरित भाषा को स्पष्ट रूप से समझ सकें।
2. छात्रों में इतनी क्षमता उत्पन्न करना कि वे पाठ्यक्रम में निर्धारित शब्दावली के आधार पर भाषा को ठीक-ठीक बोल सरकें । वे जिस वातावरण में रहते हैं, उसको सामने रखते हुए जहाँ तक बन पए, उनका उच्चारण शुद्ध होना चाहिए।
3. विद्यार्थियों को इस योग्य बनाना कि वे पाठ्यक्रम में निर्धारित शब्दावली के भीतर, अच्छी गति से ससवर तथा मौन वाचन कर सरकें तथा जो कुछ उन्होंने पढ़ा है, उसे स्पप्ट रूप से समझ भी सकें।
4. उन्हें इस योग्य बनाना कि वे पाठ्यक्रम से बाहर, किसी अपठित अवतरण को शब्दकोष की सहायता से पढ़ सकें तथा उसे समझ भी सके। परन्तु इस बात की सावधानी रखी जाए कि पाढ्यक्रम के बाहर का अवतरंण ऐसा न हो कि जिसके लिए विशेष योग्यता की आवश्यकता पड़े।
5 छात्रों को इस योग्य बनाना कि वे शुद् हिन्दी में कोई साधारण पत्र लिख सकें अथवा किसी रारल विषय पर अपने विचार व्यक्त कर सें ।

3. उच्च कक्षाएँ

।. विद्यार्थियों को इस योग्य बनाना कि वे सामान्य गति से बोली गई भाषा ठीक-ठीक समझ्ञ सकें । 
2. उन्हें इस योग्य बनाना कि उचित विराम-चिन्हों का प्रयोग करते हुए वे शुद्ध भाषा में बातचीत कर सकें । उनकी बोलचाल की भाषा में किसी भी प्रकार का उच्चारण सम्बन्धी दोष नहीं होना चाहिए।
3. छात्रों में क्षमता उत्पन्न करना कि वे उच्च रतर पर सस्वर वाचन तथा मौन वाचन कर सकें।
4. उन्हें इस योग्य बनाना कि वे वर्णनात्मक तथा सूचनात्मक सामग्री का संक्षेपीकरण कर सकें।
5. विद्यार्थियों में इतनी योग्यता उत्पन्न करना कि वे पत्र लिख सकें, देखी हुई तथा सुनी हुई घटनाओं का विवरण दे सकें तथा किसी सामान्य विषय पर शुद्ध तथा सरल भाषा में अपने व्यक्तिगत विचार व्यक्त कर सकें ।

भाषा-सम्बन्धी अन्य बातें

बालकों को भाषा की शिक्षा प्रदान करते समय, नीचे लिखी बातों पर भी ध्यान देना चाहिए-

1. प्रारम्भिक कक्षाओं में इस बात की सावधानी रखी जाय कि पाठ्य-सामग्री का चुनाव, बालकों के वातावरण के आधार पर ही किया जाय । ऐसी कोई बात पाठयक्रम में न रखी जाय, जो उनके अनुभव-क्षेत्र से बाहर की हो।
2. माध्यमिक शिक्षाओं के लिए जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाय, उसका क्षेत्र व्यापक होना चाहिए। उसे केवल एक ही देश तक सीमित नहीं रखना चाहिए। उसका सम्बन्ध संसार के अन्य देशों से भी होना चाहिए।
3. उच्च कक्षाओं में छात्रों को इंस बात का अवसर देना चाहिए कि वे भाषा के आधुनिक साहित्य का अध्ययन कर सकें।
4. भाषा-शिक्षण सम्बन्धी उद्देश्यों की विस्तृत सूची अध्यापकों को भेजी जानी चाहिए। भाषा-सम्बन्धी परीक्षाएँ इन उद्देश्यों पर आधारित होनी चाहिए ।
5. शिक्षा-संस्थाओं तथा परीक्षण-संस्थाओं को, पाठयक्रम निर्धारित करते समय, इन उद्देश्यों को अपने सामने रखना चाहिए। 

उद्देश्यों की पृर्ति 

इन उद्देश्यों की पृर्ति के लिएं यह नितान्त आवश्यक है कि पाठयक्रम में केवल वही पुस्तकें अनुमोदित की जाएँ जो इन उद्देश्यों के आधार पर लिखी गई हों। मिन्र- भिन्न कक्षाओं की पुस्तकों में जिस शब्दावली का प्रयोग किया जाए, वह भी इस नियम पर आधारित होनी चाहिए।

उद्देश्य-पूर्ति की जाँच

भाषा-शिक्षण सम्बन्धी उद्देश्यों की पूर्ति कहाँ तक हुई है, इसकी जाँच के लिए

निम्नलिखित परीक्षाओं को अपनाया जा सकता है-

1.मौखिक परीक्षा-

मौखिक परीक्षा में विद्यार्थियों से निम्नलिखित बातें करवाई जा सकती हैं-

(i) सस्वर वाचन करवाना।
(ii) प्रश्नोत्तर करना ।
(iii) किसी चित्र का वर्णन करने के लिए कहना।
(iv) विद्यार्थी को परीक्षक से प्रश्न पूछने के लिए कहना।

2 श्रुतलेख-

परीक्षक किसी आवतरण का दो-तीन बार सरवर वाचन करेगा और विद्यार्थी उसे लिखेंगे। इसरसे विद्यार्थियों की अक्षा-विन्यास सम्बन्धी अशुद्धियों का  निराकरण हो सकता है।

3.लिखित परीक्षा

लिखित परीक्षा में निम्न बातें सम्मिलित की जाएँगी--

(i) किसी अवतरण को देख-देखकर सुन्दर अक्षरों में लिखना।
(ii) चित्र का लिखित्त रूप में वर्णन करंना।
(iii) प्रश्नों का लिखित रूप में उत्तर देना।
(iv) रिक्तांशों की पूर्ति करना।
(v)व्याख्या करना।
(vi) संक्षेपीकरण करना ।

साहित्य के उद्देश्य

1, ज्ञान-प्राप्ति

साहित्य का एक उद्देश्य ज्ञान-प्राप्ति है। किसी जाति या राष्ट्र की संचित ज्ञान-राशि साहित्य में ही अवतरित होती है। कोई भी व्यक्ति कितना ही महान क्यों न हो, वह स्वयं सभी वस्तुओं का अनुभव नहीं कर सकता । वह अन्य व्यक्तियों के अनुभवों से लाभ उठाता है। अन्य व्यक्ति के ये अनुभव साहित्य में ही संजोए रहते हैं। सुमित्रानन्दन पन्त की एक कविता है

"भारत माता ग्रामवासिनी"

इसमें बतलाया गया है कि भारतवर्ष के वास्तविक दर्शन तो ग्राम में ही हो सकते हैं, भारतीय संस्कृति के परिचायक तो ग्राम ही हैं। इसी बात को, सरल शब्दों में सोहनलाल द्विवेदी ने इन शब्दों में प्रकट किया है

"पथिक नगर में दुँढ़ रहे क्या,
भारत बसा है गाँव में ।"

समाज का विकास करना

व्यक्ति समाज का एक अंग है। वह अपनी प्रत्येक बात के लिए समाज पर निर्भर करता है। अतः समाज के प्रति उसका यह कत्तव्य है कि वह समाज की उन्नति में योगदान करे और आवश्यकता पड़ने पर अपना सर्वरस्व भी न्यौछावर कर दे।

नीचे की पक्तियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र समाज की दुर्दशा देखकर कितने द्रवित हो उठते हैं--

"हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखी न जाई !"

एक अन्य कवि ने क्या ही सुन्दर शब्द कहे हैं-

"देश प्रेम का मूल्य प्राप है,
देखें कौन चुकाता है।
देखें कौन सुमन शैया तज,
कण्टक पथ अपनाता है।"

3.सौन्दर्यानुभूति कराना

जीवन में केवल दुःख-शोक ही नहीं, सुख भी है, सुन्दरता भी है। जीवन की इस सुन्दरता के दर्शन साहित्य के माध्यम से ही हो राकते हैं। प्रकृति गटी के अंग-अंग से सौन्दर्य की जो रश्मियोँं प्रफूटित हो रही हैं, उनका दिग्दर्शन साहित्य ही कराता है। युद्ध कितनी वीभत्स चस्तु है. परन्तु साहित्यकार देश-रक्षा के लिए लड़े जाने वाले युद्ध वर्णन इतने सुन्दर शब्दों में करता है कि पढ़ते-पढते मन अधाता ही नहीं । साहित्यिकार का सौन्दर्य चित्रण हमारे चित्त में कितने ही स्पर्श-चित्र, ग्ध-चित्र, चक्षु-चित्र अंकित करा जाता है। सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला' ने नीचे की पंक्तियों में किसी विधवा को परिलक्षित करते हुए कितना मनोरम शब्द-चित्र प्रस्तृत किया है-

"वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा सी
वह दीपशिखा सी शान्त भाव में लीन
वह क्रूर काल ताण्डव की स्मृति रेखा सी
वह टूटे तरु की करटी लता सी दीन
दलित - भारत की विधवा है । "

4. उदात्त भावनाओं का विकास

"सुन्दरम् के साथ-साथ साहित्य का उद्देश्य शिवम्'भी है। साहित्य मानव हृदय में उदात्त भावनाओं का संवर्धन करता है और उसे पशुत्व से देवत्व्व की ओर ले चलता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी एक कविता में लिखा है-

"भगवान् पुष्प से उसे दी हुई सुगन्ध की माॉँग करता है। कोकिल से वह केवल उसे दी हुई कुहू-कुहू की अपेक्षा रखता है । वृक्ष से वह केवल उसके फल की रखता है। परन्तु मनुष्य के सम्बन्ध में भगवान का नियम निराला है। उसने मनुष्य को दुःख दिया है। उसकी इच्छा है कि मनुष्य उसमें से सुख प्राप्त करे। उसने मनुष्य को अन्धकार दिया है। वह कहता है कि 'इस अन्धकार में से प्रकाश उत्पन्न करो। भगवान् का मनुष्य के सम्बन्ध में यह पक्षपात व्यों है ? कठोरता क्यों है ? महीं, भगवान् कठोर नहीं है। दृष्ट नहीं है। वह यह अनुभव करते हैं कि सारी सृष्टि में मानव प्राणी ही सर्व श्रेष्ठ है। यदि मानव से ऐसी अपेक्षा न करें, तो फिर किससे करें। भगवान को यह आशा है कि यह श्रेष्ठ मानव-प्राणी सारी सृष्टि का मुकुट- मेरी आशा व्यर्थ नहीं जाने देगा।

मैथिलीशरण गुप्त के 'राम' कहते हैं -

"मै आ्यों का आदर्श बताने आया
............................................... 
................................................ 

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया"

5. व्यक्तत्व का विकास करना

मानव-भावनाओं को परिष्कत करने के साथ साथ साहित्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करता है। जीवन के तीन पक्ष हैं -यान, क्रिया और भाव। श्रीमद्भगवद्गीता में इन्हें ही ज्ञान-योग, कर्म-योग तथा भक्ति योग कहा गया है तीन पक्षों में सन्तुलन होने पर मानव के व्यक्तित्व में पूर्णता आएगी । तीनों में सामंजर्य न होने से आज जीवन में अशान्ति है। इसे जयशंकर प्रसाद ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है -

"ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है
इच्छा क्यों पूरी हो मन की
एक-दूसरे से न मिल सके
यही विडम्बना है जीवन की"

ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि- पक्ष से है और भाव का सम्बन्ध हृदय-पक्ष से है। ज्ञान, क्रिया (कर्म) और भाव या हृदय (भक्ति) पक्ष का सामंजस्य भगवद्गीता में दिखलाया गया है। हिन्दी साहित्य में इसे ही प्रसाद जी ने '"कामायनी' में प्रदर्शित किया है। यह समरसता या सामंजस्य हो जाने पर जो 'आनन्द' की स्थिति होगी, उसका वर्णन कवि ने इन
शब्दों में किया है-

"समरस थे जड़ या चेतन
सुन्दर साकार बना था 
चेतनता एक विलसती
आनन्द अखण्ड घना था।"

समाज में देखा जाय तो,

नारी = हृदय पक्ष
पुरुष = बुद्द्धि पक्ष

दोनों के सामंजस्य से ही सामाजिक जीवन में परिपूर्णता आएगी । यही भगवान शिव का "अर्ध-नारीश्वर' स्वरूप है।

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